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गिरिराज गोवर्धन की पृथ्वी पर उत्पति और व्रजमण्डल में आगमन

नन्दजीने पूछा, ‘महाप्राज्ञ सन्नान्दजी! आप सर्वज्ञ और बहुश्रुत हैं, मैंने आपके मुखसे व्रजमण्डल के माहात्म्यका वर्णन सुना! अब ‘गोवर्धन’ नामसे प्रसिद्ध जो पर्वत है, उसकी उत्पति कैसे हुई, यह मुझे बताइये; इस गिरिश्रेष्ठ गोवर्धनको लोग ‘गिरिराज’ क्यों कहते है? उसका माहात्म भी मुझसे कहिये; क्योंकि आप ज्ञानियोंके शिरोमणि है ।। 1 - 3 ।।

सन्नान्दजी बोले, ‘एक समयकी बात है, हस्तिनापुरमें महाराज पाण्डुने धर्मधारियोंमे श्रेष्ठ श्रीभीष्मजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था पर उनके उस प्रश्न को और भीष्मजी द्वारा दिये गये उतरको अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे; (उस समय भीष्मजी ने जो उत्तर दिया, वही मैं यहाॅं सुन रहा हूं )।


‘साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण, जो असंख्य ब्रम्हाण्डों के अधिपती, गोलोकके नाथ और सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, जब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वयं इस भूतरलपर पधारने लगे, तब उन जर्नादन देवने अपनी प्राणवल्लभा राधासे कहा - प्रिये ! तुम मेरे वियोगसे भयभीत रहती हो, अतः तुम भी भूतलपर चलो’ ।। 4 - 6 ।।

श्रीराधाजी बोलीं - प्राणनाथ ! जहाॅं वृन्दावन नहीं है, जहाॅं यह यमुना नदी नहीं है तथा जहाॅं गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहाॅं मेरे मनको सुख नहीं मिल सकता ।। 7 ।।

सन्नान्दजी कहते हैं - नन्दराज! श्रीराधा की यह बात सुनकर स्वयं श्रीहरिने अपने धामसे चैरासी कोस विस्तृत भूमि, गोवर्धन पर्वत और यमुना नदीको भूतलपर भेजा।

उस समय चैरासी कोस विस्तारवाली गोलोककी सर्वलोकवन्दिता भूमि चैबीस वनोंके साथ यहाॅं आयी! गोवर्धन पर्वतने भारतवर्षसे पश्चिम दिशामें षाल्मली द्वीपके भीतर द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया। उस अवसरपर देवताओंने गोवर्धनके ऊपर फूल बरसाये। हिमालय और सुमेरू आदि समस्त पर्वतोंने वहां आकर प्रणाम और परिक्रमा करके गोवर्धनका विधिवर्त पूजन किया। पूजनके पश्चात उन महान् पर्वतोंने उसकी स्तुति प्रारम्भ की ।। 8 - 12 ।।


पर्वत बोले - तुम साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचद्रके गोलोकधाममें, जहाॅं दिव्य गौओंका समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप - सुन्दरियाॅं शोभा पाती हैं, सुशोभित होते हो ! तुम्हीं ‘गोवर्धन’ नामसे वृन्दावनमें विराजते हो, इस समय तुम्हीं हम समस्त पर्वतोंमें ‘गिरिराज’ हो ! तुम वृन्दावन की गोद में समोद निवास करनेवाले, गोलोकके मुकुटमणि हो तथा पूर्णब्रम्हा परमात्मा श्रीकृष्णके हाथोंमें किसी विशिष्ट अवसरपर छत्रके समान शोभा पाते हो ! तुम गोवर्धनको हमारा सादर नमस्कार है ।। 13 - 15 ।।

सन्नान्दजी कहते हैं - नन्दराज ! जब इस प्रकार स्तुति करके सब पर्वत अपने - अपने स्थानपर चले गये, तभी से यह गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात् ‘गिरिराज’ कहलाने लगा है !


गिरिराज जी का व्रज मंडल में आगमन का वर्तांत

एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी तीर्थ यात्रा के लिये भूतल पर भ्रमण करने लगे। उन महामुनि ने द्रोणाचल के पुत्र ष्यामवर्ण वाले श्रेष्ठ पर्वत गोवर्धन को देखा, जिसके ऊपर माधवी लता के सुमन सुशोबित हो रहे थे! वहाॅ के वृक्ष फलों के भार से लदे हुए थे। निर्झरों के झर-झर शब्द वहाॅं गूंज रहे थे। उस पर्वत पर बड़ी शान्ति विराज रही थी। अपनी कन्दराओं के कारण वह मङªलका धाम जान पड़ता था। सैकड़ों शिखरों से सुशोभित वह रत्नमय मनोहर शैल तपस्या करने के लिये उपयुक्त स्थान था। विविध रंग की चित्र - विचित्र धातुएँ उस पर्वतके अव्ययों में विचित्र शोभा का आधान करती थीं। उसकी भूमि ढालू (चढ़ाव - उतारसे युक्त) थी और वहाॅं नाना प्रकार के पक्षी सब ओर व्याप्त थे। मृग और बंदर आदि पशु चारों ओर फैले हुए थे। मयुरों की केका ध्वनि से मण्डित गोवर्धन पर्वत मुमुक्षुओं के लिये मोक्षप्रद प्रतीत होता था ।। 16 - 20 ।।


मुनिवर पुलस्त्यके मन में उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई ! इसके लिये वे द्रोणाचलके समीप गये। द्रोणागिरिने उनका पूजन - स्वागत - सत्कार किया। इसके बाद पुलस्त्यजी उस पर्वतसे बोले ।। 21 ।।


पुलस्त्यने कहा - द्रोण ! तुम पर्वतोंके स्वामी हो। समस्त देवता तुम्हारा समादर करते हैं। तुम दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्ना और मनुष्योंका सदा जीवन देनेवाले हो। मैं काषी का निवासी मुनि हूं और तुम्हारे निकट याचक होकर आया हूं। तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो। यहाॅं अन्य वस्तुओं से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। भगवान् विवेवरकी महानगरी ‘काशी’ नाम से प्रसिद्ध है, जहाॅं मरण को प्राप्त हुआ पापी पुरूष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाॅं गड्रा नदी प्राप्त होती हैं और जहाॅं साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं ! मैं वहीं तुम्हारे पुत्रको स्थापित करूँगा, जहाॅं दुसरा कोई पर्वत नहीं है। लता - बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा - ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जागृत हुई है ।। 22 - 26 ।।


सन्नान्दजी कहते हैं - पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्न्वाहसे विह्ल हुए द्रोणाचलके नेत्रों में अश्रु भर आये। उसने पुलस्त्य मुनि से कहा ।। 27 ।।


द्रोणाचल बोला - महामुने, मैं पुत्र - स्नेहसे आकुल हूं, यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है, तथापि आपके शाप के भय से भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमेम् देता हूं। (फिर वह पुत्र से बोला -) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याण मय कर्मक्षेत्र भारतवर्ष में जाओ, वहाॅं मनुष्य सत्कर्मों द्वारा धर्म, अर्थ और काम - त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोग द्वारा) क्षण भर में मोक्ष भी पा लेते हैं ।। 28 - 29 ।।


गोवर्धनने कहा - मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन ऊँचा और पाॅंच योजन चौड़ा है, ऐसी दशा में आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ।। 30 ।।


पुलस्त्यजी बोले - बेटा, तुम मेरे हाथ पर बैठकर सुख पूर्वक चले चलो। जब तक काशी नहीं आ जाती, तब तक मैं तुम्हे हाथ पर ही ढोये चलूंगा ।। 31 ।।


गोवर्धनने कहा - मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है, आप जहाॅं - कहीं भी भूमि पर मुझे एक बार रख देंगे, वहाॅं की भूमि से मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ।। 32 ।।


पुलस्त्यजी बोले - मैं इस शाल्मली द्वीप से लेकर भारतवर्ष के कोसल देश तक तुम्हें कही भी रास्ते में नहीं रखूंगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ।। 33 ।।


सन्नान्दजी कहते हैं - नन्दराज! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेली पर आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रों में आँसू भर आये। उसे दाहिने हाथ पर रखकर पुलस्त्य मुनि लोगों को अपना तेज दिखाते हुए धीरे - धीरे चले और व्रज - मण्डल में आ पहुंचे ! गोवर्धन पर्वत को अपने पूर्व - जन्म की बातों का स्मरण था !


व्रज में आने पर उसने मार्ग में मन-ही-मन सोचा - ‘यहाॅं व्रज में असंख्य ब्रम्हाण्ड नायक साक्षात् परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वाल बालों के साथ बाल लीला तथा कैशोर लीला करेंगे ! इतन ही नहीं, वे श्रीहरि यहाॅं दानलीला और मानलीला भी करेंगे ! अतः मुझे यहाॅ से अन्यत्र नहीं जाना चाहिये !


यह व्रजभूमि और यह यमुना नदी गोलोक से यहाॅं आयी है! श्रीराधा के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का भी यहाॅं शुभागमन होगा! उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा !’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके गोवर्धन ने मुनि की हथेली पर अपने शरीर का भार बहुत अधिक बढ़ा लिया!


उस समय मुनि अत्यन्त थक गये! उन्हें पहले की कही हुई बातकी याद नहीं रही! उन्होंने पर्वत को हाथ से उतारकर व्रजमण्डल में रख दिया! भार से पीड़ित तो वे थे ही, लघुशकासे निर्वृत होने के लिये चले गये! शौच - क्रिया करके जल में स्न्नान करने के पचात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन से कहा - ‘अब उठो!’ अधिक भार से सम्पन्ना होने के कारण जब वह दोनों हाथों से नहीं उठा, तब महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बलसे उठा लेने का उपक्रम किया!


मुनि ने स्नेह से भीगी वाणी द्वारा द्रोणनन्दन गिरिराज को ग्रहण करने का सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस-से-मस न हुआ ।। 34 - 44 ।।


तब पुलस्त्यजी बोले - गिरिश्रेष्ठ! चलो, चलो! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ! मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या अभिप्राय है? ।। 45 ।।


गोवर्धन बोला - मुने! इसमें मेरा दोष नहीं है! आपने ही मुझे यहाॅं स्थापित किया है! अब मैं यहाॅं से नहीं उठूंगा, अपनी यह प्रतिज्ञा मैंने पहले ही प्रकट कर दी थी ।। 46 ।।


सन्नान्दज्जी कहते हैं - यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इद्रियाॅं क्रोध से चच्चल हो उठीं! उनके ओष्ठ फड़कने लगे! अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने - के कारण उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया ।। 47 ।।


पुलस्त्यजी बोले - पर्वत, तू बड़ा ढीठ है! तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया! इसलिये तू प्रतिदिन तिल - तिल भर क्षीण होता चला जा ।। 48।।

सन्नान्दजी कहते हैं - नन्द, यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है। जब तक भागीरथी गंगा और गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तब तक कलिका प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा; गोवर्धन का यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और मनुष्यों के बड़े से बड़े पापों का नाश करने वाला है।


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