“..कैसा लगा मेरा बीड़ा, तेरे लिए कांदीवली से ले कर आए हैं..”
“..How did you enjoy My Beeda, We brought it for you from Kandivali..”
१ जून २०१८ हम श्री गोवर्धन के लिए मुंबई से निकले। करीब १२.३०/१ बजे दोपहर को आश्रम पर पहुँच जाते हैं।
गरमी बहुत है, और बहुत ही तकलीफ देह है।
सामने गिरिराज जी के दर्शन करते हैं, प्रणाम करते हैं।
जैसे ही हम समान वैगरह रख देते हैं, गुरुश्री की आज्ञा होती है की हमें मुखारविंद पर जाना है।
आभा, ‘इतनी गरमी में, ४५* हो रहा है, क्या हम शाम के वक्त चल सकते हैं’?
गुरुश्री, ‘कुछ जरूरी काम है, श्रीनाथजी को कुछ अर्पण करना है’; और वे उनके बैगिज में से एक प्लास्टिक की डब्बी दिखाते हैं, जो मुंबई से बहुत ही संभाल कर लाए हैं।
लेकिन बहुत बार पूछने पर भी मुझे नहीं बताते हैं, क्या लाए हैं।
गुरुश्री, “ कुछ श्रीजी का काम है जो हमें जल्द से जल्द पूरा करना है, मैं उनसे पूछता हूँ की क्या हम शाम के वक्त जा सकते हैं”?
श्रीजी बहुत ही दयालु हैं, मान जाते हैं और हम ५ बजे जाने का विचार करते हैं, स्नान, भोजन करके कुछ देर आराम करते हैं।
५ बजे स्नान करने के बाद हम परिक्रमा मार्ग से मुखारविंद दर्शन के लिए चलते हैं। अधिक महीना होने से बहुत भीड़ है, इतनी गरमी के बावजूद।
बहुत ही संभाल कर रखी हुई डब्बी को मेरे हाथ में देते हुए आदेश देते हैं, “सीधे श्रीजी के मुखारविंद के पास इसे भोग के लिए रखो, खोलना नहीं और किसी से कुछ बोलना नहीं। भगवान श्रीजी को हाथ से ढक कर अर्पण करो और चुपचाप से वापस ले आओ”।
बहुत ही भीड़ होने के कारण धक्का मुक्की में ५-१० मिनट लग जाते है; मैं पूर्ण भाव से यह कार्य पूरा करती हूँ, और श्रीजी के चरण के पास जो सेवक बैठते हैं उनके परात में सेवकी भी धरती हूँ।
डब्बी लेकर गुरुश्री को लौटा देती हूँ, जो दूर खड़े देख रहे थे, वे चुपचाप रूमाल में ढक कर रख लेते हैं; अभी तक मुझे ज्ञान नहीं है उस डब्बी में कौन सा कीमती सामान रखा है। कभी पूछती भी नहीं हूँ क्योंकि श्रीजी के बहुत से कार्य शांति से चुपचाप करने होते हैं।
मुझे कहाँ मालूम है इस समय की यह श्रीनाथजी की कृपा है हम लोगों पर!
(अर्पण करके हम लौट ते हैं तब के २ फोटो भी रखे हैं, समय है ६.१३ शाम को)
आश्रम पर लौटने के बाद, आखिर कर गुरुश्री संभाल कर उस डब्बी को खोलते हैं, उस में सिल्वर foil में कुछ रखा है। अभी तक मैं सोच रही हूँ की कुछ श्रीनाथजी प्रभु के पूजन की सामग्री है।
(यह लिखते हुए मैं उसी पल में कुछ देर के लिए खो गयी; कोशिश कर रही हूँ सही शब्द ढूँढने की जो उस पल का वर्णन कर सके; जब गुरुश्री ने रूमाल में से डब्बी निकाली और उसमें रखे हुए foil में बंद सामग्री को खोला।
किंतु बहुत ही मुश्किल है ऐसी कृपा और ठाकुरजी के दुलार को शब्द देना; हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं, आप जो भी भक्त इसे पढ़ रहे होंगे माफी चाहती हूँ, उस पल के एहसास को पूरी तरह से लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहे 🙏)
वार्ता को आगे बढ़ाते हुए;
गुरुश्री foil को खोलते हैं, मेरी उत्सुकता बहुत ही जोरदार है; और उस foil में से ५ बीड़ा निकलते हैं, जो श्रीनाथजी प्रभु को उनकी सेवा में सभी मंदिर में रखे जाते हैं।
मुझे थोड़ा आश्चर्य होता है; गुरुश्री उसमें से एक बीड़ा मुझे देते हैं और स्वयं एक लेते हैं, बाकी ३ रात्रि भोजन के बाद लेंगे।
अब यह बीड़ा में ऐसी कौन सी बड़ी बात है, आप सोच रहे होंगे!
यह बीड़ा क्यों आया और कहाँ से आया, आगे विस्तार से बताती हूँ।
अगर आप फोटो देखेंगे तो उसमें सिर्फ ३ बीड़े हैं। २ हम प्रसाद के रूप में ले चुके हैं।
फिर ३ की फोटो क्यों ली? सभी ५ की ही ले लेते?
हम ने श्रीजी को याद करके बीड़े का प्रसाद लिया था, तो उसी पल श्रीजी पधारते हैं;
“कैसा लगा मेरा बीड़ा, तेरे लिए कांदीवली से ले कर आए हैं”।
मुझे आश्चर्य होता है, इस बीड़े में श्रीनाथजी का क्या खेल है?
आभा, “श्रीजी बहुत ही स्वादिष्ट बीड़े हैं। असाधारण, अपूर्व हैं, हम अभी आपको भोग धर के ही आए हैं”।
श्रीनाथजी प्रभु, “मुझे मालूम है, सुधीर ने मुझे बोला था चलने के लिए; तू जब मुखारविंद पर धर रही थी मैं तेरे साथ ही था, वापिस भी तुम दोनों के साथ आया, देख रहा था क्या करते हो”। “अब यह जो तीन बीड़े बचे हैं, उनकी फोटो ले ले जल्दी से; बाकी के प्रसाद भोजन के बाद लेना”।
और जो फोटो रखा है, ये वही फोटो है।
श्रीनाथजी का खेल उन के और गुरुश्री के शब्द में;
“कल, (३१.०५.३०१८) शाम को सुधीर और मैं कांदीवली गोवर्धननाथ हवेली गए थे, मैं ही सुधीर को ले कर गया था, ‘चल शयन दर्शन करते हैं’; और दर्शन के बाद सुधीर को आदेश दिया वहाँ से बीड़ा माँग ले। सुबह आभा को देंगे”।
(बहुत बार होता है श्रीजी और गुरुश्री मेरे लिए बीड़ा का प्रसाद लाते है सुबह एर्पोर्ट पर; क्योंकि बीड़ा मुझे बहुत ही पसंद है; नाथद्वारा में भी बहुत बार श्रीनाथजी मुझे बीड़ा दिलवाते हैं)
किंतु उस दिन बड़े पाट पर दर्शन था तो भोग अलग होता है और बीड़ा नहीं देते हैं।
गुरुश्री, “श्रीजी आज तो प्रसाद में बीड़ा नहीं मिल सकता, कैसे देगा, फल का प्रसाद है”
श्रीनाथजी, “अरे तू जाकर माँग तो सही शायद दे दे”।
गुरुश्री, श्रीनाथजी की आज्ञा मानकर कहते हैं, “ठीक है श्रीजी आप कहते हैं तो माँग लेता हूँ”; और श्री गजेंद्र भाई, (जो वहाँ पर मैनेजर की सेवा देते हैं) से बीड़ा माँगते हैं, “हमें बीड़ा दे सकते हैं क्या आज”,
किंतु वह मना करते है, की शयन आरती हो चुकी है, आज बीड़ा का प्रसाद नहीं है, सुबह मंगला में श्रीजी को प्रसाद धरने के बाद ही मिल सकेगा।
गुरुश्री समझाते हैं की वे कल सुबह नहीं आ सकते हैं क्योंकि ५ बजे की फ्लाइट से गोवर्धन जा रहे हैं। लेकिन बीड़ा अभी कैसे दे सकते हैं, भोग नहीं लगा है।
तब गुरुश्री श्रीनाथजी को समझाने की कोशिश करते हैं की आज बीड़ा मिलना मुश्किल है, किंतु ठाकुरजी कहाँ मानने वाले हैं, उनकी भी जिद होती है, “तू जा, जा, उसे कह की सुबह के लिए जो बना कर रखे हैं उसमें से पाँच दे दे; हम गोवर्धन जा रहे हैं सुबह और वहाँ मुखारविंद पर चढ़ाने हैं श्रीजी की सेवा में”।
गुरुश्री,श्रीनाथजी की आज्ञा मानकर फिर श्री गजेंद्र भाई के पास जाते हैं और उन्हें विस्तार से बताते हैं। सुनकर गजेंद्र जी गुरुश्री से कहते हैं की वे मुखियाजी से बात करें, वो ही बता पाएँगे।
तब गुरुश्री और श्रीनाथजी मुखियाजी के पास जाते हैं, “हमें ५ बीड़े चाहिए, सुबह गोवर्धन के लिए रवाना हो रहे हैं, वहाँ मुखारविंद पर धरने हैं”।
श्रीनाथजी के समझाने के अनुसार जब गुरुश्री ने मुखियाजी को बताया की वे बीड़ा गोवर्धन पर ठाकुरजी को भोग धरने के लिए माँग रहे हैं, श्रीनाथजी की प्रेरणा हुई और मुखियाजी समझ गए और कहा, “ठीक बात है, श्रीनाथजी के लिए ही बना कर रखे हैं, अगर आप गोवर्धन पर भोग धरेंगे तो बहुत अच्छी बात है”।
और मुखियाजी ने बहुत ख़ुशी से ५ बीड़े गुरुश्री को दे दिए। उन्हें सुनकर खुशी थी की गोवर्धन पर ठाकुरजी उनके हाथ से बने बीड़े आरोगेंगे।
गुरुश्री आज्ञा अनुसार उन बीड़े को संभाल कर रख दिया, संभाल कर गोवर्धन पर लाए, और मुझे दिए मुखारविंद ओर भोग धरने के लिए!
आश्रम पर, भोग धरने के बाद जब खोला तो वे बिलकुल ताजा थे।
गुरुश्री मुझ से कहते हैं, “तुम्हारे सर पे चार हाथ हैं, मैं तो सिर्फ निमित मात्र बना था”।
🙏
जय श्रीनाथजी प्रभु
आप की साक्षात्कार कृपा के लिए हम नतमस्तक हैं
मन को मनुष्य जीवन का साँचा ही समझना चाहिए व जीवन को मन का दर्पण । यह साँचा जितना ही सुंदर स्वस्थ व पूर्ण होगा मनुष्य का जीवन भी उसमें ढलकर उतना ही सुंदर स्वस्थ व पूर्णता को प्राप्त होगा ।सूंदर व स्वस्थ होने के लिए बस ज़रा मन को भीतर स्थित करना है हम कुछ भी नही बदल सकते ना संसार को न परिस्थितियों को बदल सकते है तो केवल खुद को अपने स्वरूप में स्थित कर । संसार तो ऐसा ही था ऐसा ही है व ऐसा ही रहेगा । सद विचार व सोच जीवन मे एक सकरात्मता ,एक पवित्रता एक आनंद लेकर आते है संसार के सुख क्षणिक ,जल्दी लौट जाने वाले , बड़ा दुख देन…