Birth of Giriraj Govardhan at Golok
बहुलाश्व बोले- देवर्षे! महान् आश्र्चयकी बात है, गोवर्धन साक्षात् राजा एवं श्रीहरिको बहुत ही प्रिय है।
उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतलपर है और न स्वर्गमें हीं महामते! आप साक्षात् श्रीहरिके ह्रदय हैं ।
अतः अब यह बताइये की यह गिरिराज श्रीकृष्णके वक्षः स्थलसे कब प्रकट हुआ ।। 1 - 2।।
श्रीनारदजी ने कहा - राजन्! महामते गोलोक के प्राकटय का वृतान्त सुनो -
यह श्रीहरि की आदिलीला से सम्बध्द है और मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - चारों पुरूषार्थ प्रदान करने वाला है। प्रकृपि से परे विद्यमान साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरूष एवं अनादि आत्मा हैं।
उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयंप्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं। जिनपर धामाभिमानी गणनाशील देवताओंका ईश्वर ‘काल’ भी शासन करनेमें समर्थ नहीं है। राजन्। माया भी जिनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उनपर महत्तत्व और सत्वादि गुणोंका वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन्! उनमें कभी मन, चित्त, बुध्दि और अहंकारका भी प्रवेश नहीं होता। उन्होंने अपने संकल्पसे अपने ही स्वरूपमें साकार ब्रह्मको व्यक्त किया।। 3 - 6 ।।
सबसे पहले विशालकाय शेषनागा का प्रादुर्भाव हुआ, जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हीं की गोद में लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिस पाकर भक्तियुक्त पुरूष फिर इस संसारमें नही लौटता।
फिर असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति गोलोकनाथ भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से त्रिपथगा गङ प्रकट हुई।
नरेश्वर! तत्पश्चात् श्रीकृष्णके बायें कंधेसे सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजीका प्रादुर्भाव हुआ, जो श्रिंगार - कुसुमोंसे उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ीके वस्त्रकी शोभा होती है। तदनन्तर भगवान् श्रीहरिके दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्ठियों) से हेमरत्नोंसे युक्त दिव्य रासमण्डल और नाना प्रकारके श्रिंगार - साधनोंके समूहका प्रादुर्भाव हुआ।
इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णकी दोनों पिंडालियों से निकृज प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आॅंगनों, गलियों और मण्डपोंस घिरा हुआ था।
वह निकु०ज वसन्तकी माधुरी धारण किये हुए था। उसमें कूजते हुए कोकिलोंकी काकली सर्वत्र व्याप्त थी।
मोर, भ्रमर तथा विविध सरोवरों से भी वह परिशोभित एवं परिसेवित दिखायी देता था। राजन्! भगवान्के दोनों घुटनों से सम्पूर्ण वनों मे उत्तम श्रीवृनका आविर्भाव आविर्भाव हुआ।
साथ ही उन साक्षात् परमात्मा की दोनों जाॅघों से लीला - सरोवर प्रकट हुआ।
उनके कटिप्रदेशसे दिव्य रत्नोंद्वारा जटित प्रभामयी स्वर्णभूमिका प्राकटय हुआ और उनके उदरमें जो रोमावलियाॅं है, वे हीं विस्तृत माधवी लताएॅं वन गयीं। उन लताओंमे नाना प्रकारके पक्षियोंके झुंड सब ओर फैलकर कलरव नकर रहे थे। गुंजार करते हुए भ्रमर उन लता - कुंजोंकी शोभा बढ़ा रहे थे।
वे लताएॅं सुन्दर फूलों और फलोंके भारसे इस प्रकार झुकी हुई थीं, जैसे उत्तम कुलकी कन्याएॅं लज्जा और विनयके भारसे नतमस्तक रहा करती हैं।
भगवान्के नाभिमलसे सहस्त्रों कमल प्रकट हुए, जो हरिलोकके सरोवरोंमें इधर - उधर सुशोभित हो रहे थे। भगवान्के त्रिवली प्रान्तसे मन्दगामी और अंत्यन्त शीतल समीर प्रकट हुआ और उनके गलेकी हॅंसुलीसे ‘मथुरा’ तथा ‘द्वारका’ - इन दो पुरियोंका प्रादुर्भाव हुआ ।। 7 - 18 ।।
श्रीहरिकी दोनों भुजाओंसे ‘श्रीदामा’ आदि आठ पार्षद उत्पन्न हुए।
कलाइयोंसे ‘नन्द’ और कराग्रभागसे ‘उपनन्द’ प्रकट हुए।
श्रीकृष्णकी भुजाओंके मेल भागोंसे समस्त वृषभानुओंका प्रादुर्भाव हुआ।
नरेश्वर! समस्त गोपगण श्रीकृष्णके रोमसे उत्पन्न हुए हैं।
श्रीकृष्णके मनसे गौओं तथ धर्मधुरंधर वृषभोंका प्राकटय हुआ।
मैथिलेश्वर! उनकी बुध्दिसे घास और झाडियाॅं प्रकट हुई।
भगवान्के बाये कंधेसे एक परम कान्तिमान् गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी, विरजा तथा अन्यान्य हरिप्रियाएॅं आविर्भूत हुईं। भगवान्की प्रियतमा जो ‘श्रीराधा’ है, उन्हींको दूसरे लोग ‘लीलावती’ या ‘लीला’ के नामसे जानते हैं।
श्रीराधाकी दोनों भुजाओंसे ‘विशाखा’ और ‘ललिता’ - इन दो सखियोंका आविर्भाव हुआ। नरेश्वर! दूसरी - दूसरी जो सहचरी गोपियाॅं हैं, वे सब राधाके रोमसे प्रकट हुई हैं।
इस प्रकार मधुसूदनने गोलोककी रचना की ।। 19-24।।
राजन्! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोककी रचना करके असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, परात्पर, परमात्मा, परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाॅं श्रीराधाके साथ सुशोभित हुए। उस गोलोकमें एक दिन सुन्दर रासमण्डलमें, जहाॅं बजते हुए नूपुरोंका मधुर शब्द गॅंूज रहा था, जहाॅंका आॅंगन सुन्दर छत्रमें लगी हुई मुक्ताफलकी लड़ियोंसे अमृतकी वर्षा होती रहनेके कारण रसकी बड़ी -बड़ी बूॅंदोंसे सुशोभित था; मालतीके चॅंदोवोंसे स्वतःझरते हुए मकरन्द और गन्धसे सरस एवं सुवासित था; जहाॅं मृदङª; तालध्वनि और वंशीनाद सब ओर व्याप्त था; जो मधुरकण्ठसे गाये गये गीत आदिके कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियोंके रासरससे परिपूर्ण एवं परम मनोरम था; उसके मध्यभागमें स्थित कोटिमनोजमोहन ह्रदय - वल्लभसे श्रीराधाने रसदान - कुशल कटाक्षपात करके गम्भीर वाणीसें कहा ।। 25 - 28।।
श्रीराधा बोलीं - जगदीश्वर! यदि आप रासमें मेरे प्रेमसे प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मनकी प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हॅंू ।। 29।।
श्रीभगवान् बोले - प्रिये! वामोरू!! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, मुझसे माॅंग लो। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हे अदेय वस्तु भी दे दूॅंगा ।। 30।।
श्रीराधाने कहा - वृन्दावनमें यमुनाके तटपर दिव्य निकु०जके पाश्र्वभागमें आप रासरसके योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये। देवदेव! यही मेरा मनोरथ है।।31।।
नरदजी कहते हैं - राजन्!
तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान्ने एकान्त-लीलाके योग्य स्थानका चिन्तन करते हुए नेत्र कमलोंद्वारा अपने ह्रदयकी ओर देखा। उसी समय गोपी - समुदायेक देखते - देखते श्रीकृष्ण के ह्रदयसे अनुरागके मूर्तिमान् अङकुरकी भाॅंति एक सघन तेज प्रकट हुआ। रासभूमिमें गिरकर वह पर्वतके आकारमे बढ़ गया।
वह सारा - का - सार दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था।
कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता - जाल उसे और भी मनोहर बना रहे थे। मन्दार और कुन्दवृन्दसे सम्पन्न उस पर्वतपर भाॅंति - भाॅंतिके पक्षी कलरव रहे थे।
विदेहराज! एक ही क्षणमें वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत और शेषकी तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया। उसकी ऊॅंचाई पचास करोड़ योजनकी हो गयी । पचास कोटि योजनमें फैला हुआ वह पर्वत सदाके लिये गजराजके समान स्थित दिखायी देने लगा।
मैथिल! उसके कोटि योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान् होने लगे। उन शिखरोंसे गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशोंसे कोई ऊॅंचा महल शोभा पा रहा हो ।। 32 -38 ।।
कोई- कोई विद्वानृ उस गिरिको गोवर्धन और दूसरे लोग ‘शतश्रृङª कहते हैं। इतना विशाल होनेपर भी वह पर्वत मनसे उत्सुक सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भयसे विह्रल हो गया और वहाॅं सब ओर कोलाहल मच गया।
यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात हाथसे शीघ्र ही उसे ताड़ना दी और बोले ‘अरे ! प्रच्छन्नरूपसे बएता क्यों जा रहा है? सम्पूर्ण लोकको आच्छादित करके स्थित हो गया? संम्पूर्ण लोकको आच्छादित करके स्थित हो गया?
क्या ये लोक यहाॅ निवास करना नहीं चाहते?’ यों कहकर श्रीहरिने उसे शान्त किया - उसका बढना रोक दिया। उस उत्तम पर्वतको प्रकट हुआ देख भगवत्प्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हुई।
राजन्! वे उसके एकान्तस्थलमें श्रहरिके साथ सुशोभित होने लगीं।। 39 -42 ।।
इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात् श्रीकृष्णसे प्रेरित होकर इस व्रजमण्डलमें आया है।
यह सर्वतीर्थमय है। लता - कु०जोंसे श्याम आभा धारण करनेवाला यह श्रेष्ठ गिरि मेघकी भाॅंति श्याम तथा देवताओंका प्रिय है।
भारतसे पश्चिम दिशामें शालमलिद्वीपके मध्यभागमें द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे गोवर्धनने जन्म लिया। महर्षि पुलस्त्य उसको भारतके व्रजमण्डलमें ले आये।
विदेहराज! गोवर्धनके आगमनकी बात मै तुमसे पहले निवेदन कर चुका हॅंू ।
जैसे यह पहले गोलोकमें उत्सुकतापूर्वक बढ़ने लगा था, उसी तरह यहाॅं भी बढ़े तो वह पृथ्वीतकके लिये एक ढक्कन बन जायगा - यह सोचकर मुनिने द्रोणपुत्र गोवर्धनको प्रतिदिन क्षीण होनेका शाप दे दिया।। 43 -46।।
Jai ShreeNathji Prabhu
(This has been taken from the Holy Garg Samhita written by Shri Garg Muni. It is a shortened description as required for the narration of the varta).
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