महात्मा गिरिराज के आस पास अथवा उनके ऊपर कितने मुख्य तीर्थ है?
समुचा गोवर्धन पर्वत ही सब तीर्थो से श्रेष्ठ माना जाता है। वृन्दावन साक्षात गोलोक है और गिरिराज को उसका मुकुट बताकर सम्मानित किया गया है।
वह पर्वत गोपों, गोपियों तथा, गौओं का रक्षक एवं महान कृष्ण प्रिय है। जो साक्षात् पूर्ण ब्रम्ह का छत्र बन गया, उससे श्रेष्ठ तीर्थ दूसरा कौन है।
भुवनेश्वर एवं साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने, जो असंख्य ब्रम्हाण्ड़ों के अधिपति, गोलोक के स्वामी तथा परात्पर पुरूष हैं, अपने समस्त जनों के साथ इन्द्र याग को धता बताकर जिसका पूजन आरम्भ किया, उस गिरिराज से अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा।
जिस पर्वत पर स्थित हो भगवान श्रीकृष्ण सदा ग्वाल- बालोंके साथ क्रीड़ा करते हैं, उसकी महिमा का वर्णन करने में तो चर्तुमुख ब्रम्हाजी भी समर्थ नहीं हैं।
जहॉ बड़े- बड़े पापों की राशि का नाश करने वाली मानसी गंगा विद्यमान है, विशद गोविन्द कुण्ड़ तथा शुभ्र चन्द्र सरोवर शोभा पाते हैं, जहॉ राधा कुण्ड़, कृष्ण कुण्ड़, ललिता कुण्ड़, गोपाल कुण्ड़ तथा कुसुम सरोवर सुशोभित हैं, उस गोवर्धन की महिमा का कौन वर्णन कर सकता है।
श्रीकृष्ण के मुकुट का स्पर्श पाकर जहॉ की शिला मुकुट के चिन्ह से सुशोभित हो गयी, उस शिला का दर्शन करने मात्र से मनुष्य देवशिरोमणि हो जाता है। जिस शिला पर श्रीकृष्ण चित्र अंकित किये हैं, आज भी गिरिराज के शिखर पर दृष्टिगोचर होती है। बालकों के साथ क्रीड़ा में संलग्न श्रीकृष्ण ने जिस शिला को बजाया था, वह महान पाप समूहों का नाश करने वाली शिला ‘वादिनी शिला’ (बाजनी शिला) के नाम से प्रसिद्ध हुई।
मैथिल ! जहॉ श्रीकृष्ण ग्वाल – बालों के साथ कन्दुक – क्रीड़ा की थी, उसे ‘कन्दुकक्षेत्र’ कहते हैं। वहॉ ‘शक्रपद’ और ‘ब्रम्हपद’ कहते हैं।
वहॉ ‘शक्रपद’ और ‘ब्रम्हपद’ नामक तीर्थ हैं, जिनका दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रम्ह्लोक जाता है।
जो वहॉ की धूल में लोटता है, वह साक्षात् विष्णू्पद को प्राप्त होता है।
जहॉ माधव ने गोपों की पगडि़यॉं चुरायी थी, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वत पर ‘औष्णीष’ नाम से प्रसिद्ध है।।
एक समय वहॉ दधि बेचने के लिये गोप वधुओं का समुदाय आ निकला। उनके नूपुरों की झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्ण ने निकट आकर उनकी राह रोक ली। वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालों द्वारा उनको चारों ओर से घेर लिया और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्ग में उन गोपियों से बोले ‘इस मार्ग पर हमारी ओर से कर वसूल किया जाता है, सो तुम लोग हमारा दान दे दो’।।
गोपियॉ बोली- तुम बड़े टेढ़ हो, जो ग्वाल बालों के साथ राह रोक कर खड़े हो गये? तुम बड़े गोरस- लम्पट हो। हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं तो मॉं- बाप सहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंस के कारागार में ड़लवा देगी।।
श्री भगवान् ने कहा- अरी! कंस का क्या ड़र दिखाती हो? मैं गौओं की शपथ खाकर कहता हूँ, महान उग्रदंड़ धारण करने वाले कंस को मैं उसके बंधु- बांधव सहित मार डालॅूगा, अथवा मैं उसे मथुरा से गोवर्धन की घाटी में खींच लाऊँगा।।
यों कहकर बालकों द्वारा पृथक –पृथक सबके दही पात्र मँगवा कर नन्दन नन्दने बड़े आनंद के साथ भूमि पर पटक दिये। गोपियॉं परस्पर कहने लगीं- ‘अहो ! यह नन्द का लाल तो बड़ा ही ढ़ीठ और निड़र है, निरंकुश है। इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये। यह गॉंव में तो निर्बल बना रहता है और वन में आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्दरायजी से कहती हैं।’ यों कहकर गोपीयॉं मुस्कराती हुई अपने घर को लौट गयीं।।
इधर माधव ने कदम्ब और पलाश के पत्ते दोने का बनाकर बालकों के साथ चिकना चिकना दही ले लेकर खाया । तबसे वहॉं के वृक्षों के पत्ते दोने के आकार के होने लग गये। वह परम पुण्यन क्षेत्र ‘द्रोण’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जहॉं नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ लुका- छिपीके खेल खेलते थे, वहॉं ‘लैकिक’ नामक पापनाश तीर्थ हो गया।
श्रीहरि की लीला से युक्त जो ‘कदम्बखण्ड़’ नामक तीर्थ है, वहॉं सदा ही श्रीकृष्ण लीलारत रहते हैं। जहॉं गोवर्धनपर रासमें श्रीराधा ने श्रृंगार धारण किया था, वह स्थान ‘श्रृंगारमण्ड़ल ‘ के नामसे प्रसिद्ध हुआ।
नरेश्र्वर श्रीकृष्ण ने जिस रूप से गोवर्धन पर्वत को धारण किया था, उनका वही रूप श्रृंगारमण्ड़ल – तीर्थ में विद्यमान है।
जब कलियुग के चार हजार आठ वर्ष बीत जायेंगे, तब श्रृंगार मण्ड़ल क्षेत्र में गिरिराज की गुफा के मध्य भाग से सबके देखते – देखते श्रीहरि का स्वेत:सिद्ध रूप प्रकट होगा। देवताओंका अभिमान चूर्ण करनेवाले उस स्वगरूप को सज्जन पुरूष ‘श्रीनाथजी’ के नाम से पुकारेंगे ! राजन ! गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजी सदा ही लीला करते हैं। मैथिलेन्द्रष ! कलियुगमें जो लोग अपने नेत्रों से श्रीनाथजी के रूप का दर्शन करेंगे, वे कृतार्थ हो जायेंगे ।।
भगवान भारत के चारों कोनों मे क्रमश: जगन्नाथ, श्रीरंगनाथ, श्रीद्वारकानाथ और श्रीबद्रीनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। भारतके मध्यंभागमें भी वे गोवर्धननाथ के नामसे विद्यमान हैं। इस प्रकार पवित्र भारत वर्ष में ये पॉंचों नाथ देवताओं के भी स्वाममी हैं। वे पॉंचो नाथ सध्देर्मरूपी मण्ड़पके पॉंच खंभे है और सदा आर्तजनोंकी रक्षा में तत्पर रहते हैं। उन सबका दर्शन करके नर नारायण हो जाता है। जो विद्वान् पुरूष इस भूतल पर चारों नाथोंकी यात्रा करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथका दर्शन नहीं करता, उसे यात्रा का फल नहीं मिलता जो गोवर्धन पर्वत पर देवदमन श्रीनाथ का दर्शन प्राप्त हो जाता है।।
जहॉं ऐरावत हाथी और सुरभि गौके चरणोंके चिन्हृ है, वहॉं नमस्कार करके पापी मनुष्य भी वैकुण्ठाधाम में चला जाता है। जो कोई भी मनुष्य महात्मा श्रीकृष्ण के हस्तक चित्रका दर्शन कर लेता हैं, वह साक्षात श्रीकृष्ण के धाम में जाता हैं। ये तीर्थ, कुण्ड़ और मन्दिर गिरिराज अंगभूत हैं,
विभिन्न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्न अंगों की स्थिती का वर्णन
गिरिराज के किन – किन अंगों में कौन कौन से तीर्थ विद्यमान हैं? जहॉं, जिस अंग की प्रसिद्धि है, वही गिरिराज उत्तम अंग माना गया हैं। क्रमश: गणना करने पर कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जो गिरीराज अंग न हो। मानद ! जैसे ब्रम्ह सर्वत्र विद्यमान है और सारे अंग उसी के हैं, उसी प्रकार विभूति और भाव की दृष्टि से गोवधर्न के जो शाश्वत अंग माना जाते है उनका मैं वर्णन करूँगा।।
श्रृंगमण्डल के अधोभाग में श्रीगोवर्धन का मुख है, जहॉं भगवान् ने व्रजवासियों के साथ अन्नकुट का उत्सव किया था।
‘मानसी अंग’ गोवर्धन के दोनों नेत्र हैं,
‘चन्द्र सरोबर’ नासिक, गोविन्दतकुण्ड’ अधर और ‘श्रीकृष्णकुण्ड’ चिबुक है।
‘राधकुण्ड ‘ कान और ‘कुसुम सरोवर’ कर्णान्तभाग है।
जिस शिलापर मुकुट का चिन्ह है, उसे गिरिराज का ललाट समझो।
‘चित्रशिला उनका मस्तवक और ‘वादिनी शिली’ उनकी ग्रीवा है।
‘कन्दुकतीर्थ’ उनका पार्श्व भाग है और ”उष्णीषतीर्थ’ को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है।
‘कदम्बखण्डन’ ह्रदयस्थल में है।
श्रृंगमण्डलतीर्थ उनका जीवात्मा है।
‘श्रीकृष्ण – चरण – चिन्ह’ महात्मा गोवर्धन का मन है।
‘हस्तचिन्हतीर्थ’ बुद्धि तथा ऐरावत-चरणचिन्ह ‘ उनका चरण है।
सुरभि के चरणचिन्हों में महात्मान गोवर्धन के पंख है।
‘पुच्छकुण्ड’ में पूँछ की भावना की जाती है।
‘वत्सकुण्ड’ में उनका बल, ‘रूद्रकुण्ड’ में क्रोध तथा ‘इन्द्रसरोवर’ में काम की स्थिती है।
‘कुबेरतीर्थ’ उनका उघोग स्थल और ‘ब्रम्हंतीर्थ’ प्रसन्नता का प्रतीक है।
पुराणवेत्ता पुरुष ‘यमतीर्थ- गोवर्धन के’ अहंकार की स्थिति बताते है।
गिरिराजोंका भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरि के वक्षः स्थलसे प्रकट हुआ है और पुलस्त्यमुनि के तेज से इस व्रजमण्डल मे उसका शुभागमन हुआ है।
उसके दर्शन से मनुष्य का इस लोक में पुनर्जन्म नहीं होता।।
Jai Ho ShreeNathji Bhagwan
Jai Shree GovardhanNath
Enchanting, Mysterious, Divine Giriraj Govardhan
ShreeNathji is forever playing on Govardhan
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