फाल्गुन वद सतम को विक्रम संवत 1672 (1728 ईसवी) में श्री दामोदर महाराजजी (श्रीदाऊजी) ने नाथद्वारा स्थित मंदिर हवेली में श्रीनाथजी के पाट की स्थापना की।
वैदिक अनुष्ठानो के अनुसार इसे वास्तु प्रतिष्ठा एवं पूजन के साथ पूर्ण किया गया। धीरे-घीरे विभिन्न प्रकार के सभी अनुष्ठानों एवं पर्वों को एक बार पुनः उसी प्रकार प्रारंभ किया गया, जैसे गोवर्धन पर्वत पर हुआ करते थे। श्रीनाथजी यहाँ ने प्रसन्नता पूर्वक मेवाड़ मेंरहने लगे।
निकट ही श्रीनाथजी की गायों के लिए एक गोशाला का निर्माण किया गया।
श्री दाऊजी महाराज ने भरपूर स्नेह के साथ श्रीनाथजी की देख-भाल की एवं सभी उत्सवों एवं महाउत्सवों का आनंद मनाया। प्रभु के सभी प्रकार के श्रृंगार वे स्वयं करते थे।
परंतु इसके बाद शीघ्र ही वहां पर सिंधिया सेना द्वारा एक समस्या उत्पन्न कर दी गयी। वे 3 लाख मुद्राओं की मांग करने लगे, तथा ऐसा न करने पर हवेली को लूटने की धमकी दे रहे थे। जैसे ही उदयपुर के महाराणा ने इस बात को सुना, उन्होंने तुरंत ही श्रीजी को सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें उदयपुर स्थानांतरित कर दिया।
श्रीजी उदयपुर की हवेली में 10 महीने रहे। इस समय में उनकी नयी हवेली घसियार नामक स्थान पर निर्मित हो गई।यह सुरम्य स्थल गोकुंडा पर्वत में स्थित है।
श्रीनाथजी को नई जगह में अप्रस्संता ना हो, इसलिए इस हवेली को नाथद्वारा हवेली जैसे ही निर्माण करा।
यहाँ पर श्रीघ ही पाट उत्सव मनाय गया। नाथद्वारा हवेली जैसी सेवा भी शीघ्र ही शुरू हो गई।
ठाकुरजी पूरी तरह से ख़ुशी से रहने लगे, सभी सेवक भी आस पास रहते थे। किंतु ५/६ वर्ष बीतने पर समस्या खड़ी हुई, जिस कारण से श्रीनाथजी नत्थ्द्वारा लौट गए।
घासिया प्रभु की १२ चरण चौकी में से है।
घसियार में स्थानांतरण एवं वापस नाथद्वारा में आने के संदर्भ में एक बेहद रोचक कहानी है।
महाप्रभुजी के पुत्र श्री गुसाइंजी के 7 पुत्र थे। उनमें से श्री गिरधरजी यहां पर निरंतर सेवा प्रदान करने के लिए श्रीनाथजी के साथ आए। वे यहां पर श्रीनाथजी की आवश्यकताओं की देख-भाल के प्रभारी थे। जब घसियार हवेली का निर्माण हो गया, तब सभी अनुयायी और सेवक, जो उनके साथ गिरिराज से आए थे, (गिरिराजजी के प्रकट होने का मूल स्थल) उनकी सेवा के लिए घसियार में रहने लगे।
शीघ्र ही श्री गिरधरजी ने समस्याओं का सामना करना प्रारंभ किया।
उन्होंने पाया कि यहां पर जन्मने वाले सभी बच्चे जीवित नहीं बचते हैं। यह पाया गया कि यहां का पर्यावरण एवं जल शुद्ध नहीं है। एक बड़ी उदासी में श्री गिरधरजी श्रीनाथजी के पास गए और नतमस्तक हो गए तथा उन्हें इस दुर्भाग्य के विषय में बताया,
‘‘आपकी सेवा के लिए कोई भी नहीं बचेगा। हमें यहां से वापस जाना होगा।’’
जैसे ही श्री गिरधरजी उनके सामने झुके, वैसे ही श्रीनाथजी ने अपने चरणों को किनारे कर लिया तथा उनके सिर पर अपना दाहिना हाथ रखा एवं आशीर्वाद देने के साथ ही साथ इसकी अनुमति दी। (यह ऐसे दर्शन हैं जो यहां पर पिछवाई के स्वरुप में बरकरार रखे गए हैं, जिसमें श्रीनाथजी के चरण कमल को किनारे की ओर घुमाया हुआ प्रदर्शित किया गया है)।
श्रीनाथजी की अनुमति एवं आशीर्वाद से वे वापस चले गए।
श्रीनाथजी के यहां से चले जाने के बाद उनकी हवेली बनी रही और उनकी सेवा उसी प्रकार से चलती रही। इसके आस-पास किसी भी गांव का निर्माण नहीं किया गया। इसका प्रबंधन नाथद्वारा परिषद के अधिकार क्षेत्र में है। यह स्थान प्रायः सदैव ही खाली रहता है। यहां पर नियमित रुप से तीन लोग इसका प्रबंधन करते हैं, जिसमें मुख्य मुखियाजी-अबगिरधर, मुनीम एवं एक प्रहरी सम्मिलित है।
जब हमने मुखिया जी से बात की तब उन्होंने हमें बताया कि यहां पर रोज लगभग 15 से 20 भक्त दर्शन के लिए आते हैं। लोग इस बात से परिचित नहीं हैं कि ऐसा स्थान भी अस्तित्व में है।
यद्यपि यहां पर एक गोशाला है, परंतु यहां पर नियमित रुप से बहुत कम गायें रहती हैं। अन्नकूट के समय लगभग 500 गाएं नाथद्वारा से यहां पर आती हैं, जो बाद में वापस चली जाती हैं। इसके अतिरिक्त जब नाथद्वारा गोशाला के आस-पास हरी घास की कमी हो जाती है, तब कुछ गायें अस्थायी रुप से यहां पर लायी जाती हैं।
5 जून 2007 को घसियार की हमारी पहली यात्रा
जब मैं श्रीनाथजी से संबद्ध उनकी वेबसाइट ¼www.shreenathjibhakti.org½ के विषय में अनुसंधान कर रही थी, तब मैं घसियार नामक इस स्थान पर आयी। यह एक हवेली है, जहां पर श्रीजी लगभग ७/८ वर्षों तक रहे।
अन्य विवरणों के विषय में जानना और उसके विषय में समझना एक बेहद रोचक प्रक्रिया प्रतीत हुयी। और वेबसाइट के लिए कुछ तस्वीरों को लेना भी इस यात्रा का एक आवश्यक अंग था।
मैंने गुरुश्री सुधीर भाई को इस दिव्य स्थल के विषय में बताया और यह जानकारी दी कि यह कई वर्षों के लिए श्रीजी का निवास-स्थल था। सुधीर भाई यहां पर आने के लिए तैयार हो गए, इसलिए आज यहां पर घसियार में हमने ग्वाल और राजभोग का दर्शन किया।
मैं यहां आने के लिए बहुत उत्साहित रही हूं, क्योंकि यह बेहद शुद्ध और पवित्र प्रतीत होता है। इसलिए आज प्रातः काल 4 बजे जब मैं गुरुश्री के साथ मंगला दर्शन के लिए बाहर खड़ी थी, मैंने श्रीजी से वार्तालाप करने का प्रयास किया। उन्हें इस बात की सूचना देने के लिए ही आज उनकी पुरानी हवेली में जा रहे हैं, जो घसियार में स्थित है।
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब श्रीनाथजी ने मुझे तुरंत उत्तर दिया, ‘‘मुझे अच्छी तरह से याद है कि घसियार की हवेली मेरा पुराना निवास-स्थल है। मैं वहां पर कभी-कभार जाता हूं। आज मैं भी वहां पर तुम्हारे साथ चलूंगा।’’
इस समय मुझे यह महसूस होने लगा कि मैं श्रीनाथजी का ही एक अंग हूं और उनके प्राचीन निवास-स्थल पर जाना मेरे लिए एक बेहद भावनात्मक क्षण प्रतीत हो रहा था। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं यहीं की रहने वाली हूं।
इस प्रकार लगभग 9 से 9.30 बजे तक श्रृंगार दर्शन करने के बाद हम घसियार के लिए निकल गए।
घासियार पहुंच कर श्रीजी बहुत प्रसन्न थे। मैंने एक बार पुनः उनकी दिव्य उपस्थिति का पूर्ण अनुभव किया। मुझे आंतरिक दिव्यता की अनुभूतिहो रही थी। श्रीनाथजी ने हमें बताया कि वे यहां पर आकर कितने प्रसन्न हैं और यहां के परिवेश में आनंद महसूस कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि जब दोनो दर्शन का प्रारंभ होगा, तब वे स्वयं निज मंदिर के अंदर उपस्थित रहेंगे।
एक बार पुनः मैंने अपने पास श्रीजी की उपस्थिति को महसूस किया, जो एक छोटे बालक के समान शिकायत कर रहे थे, ‘‘यहां पर बहुत गर्मी है, परंतु कोई बात नहीं.. मैं बहुत प्रसन्न हूं क्योंकि तुम दोनो लोगों को इस स्थान का स्मरण है। यहां पर बहुत कम लोग आते-जाते हैं।’’
हमने आज ‘खोपरा पाक’ का प्रसाद प्राप्त किया, जो बहुत मीठा और स्वादिष्ट था। मैंने श्रीनाथजी को यह बताने का प्रयास किया कि इस प्रसाद का स्वाद कुछ अधिक ही मीठा एवं स्वादिष्ट है। श्रीनाथजी ने एक बार पुनः कहा कि, ‘‘बेशक वह ऐसा होगा, क्योंकि प्रसाद में मुझे अतिशय मिठास पसंद है।’’
बाद में मैंने अपनी इस पूरी अनुभूति के विषय में ग़ुसूश्री सुधीर भाई को इसकी जानकारी दी। उस क्षण उन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा, ‘‘हां मैं जानता हूं, तुम बहुत भाग्यशाली हो। शायद ही कोई ऐसा होगा जो श्रीनाथजी के साथ इतनी निकटता से दैवीयता का अनुभव करने में सक्षम हुआ होगा।’’
गुरुश्री सुधीर भाई और मैं यहां पर घसियार में विस्तृत अध्ययन के लिए आए। मैंने बाहर से इसकी तस्वीरें लीं। नाथद्वारा हवेली के समान ही यहां पर भी मंदिर के प्रांगण में चित्र खींचने की अनुमति नहीं है। हम यहां पर लगभग 3-4 घंटे के लिए ठहरे और इस समूचे क्षेत्र की सुरम्यता एवं पवित्रता का आनंद उठाया। हमने ग्वाल और राजभोग का दर्शन भी किया।
मेरे प्रिय श्रीनाथजी बाबा की जय हो!
घसियार की हमारी अगली दो यात्राएं 10 अप्रैल 2014 और 18 जून 2015 को हुयीं एवं बेशक श्रीजी सदैव ही हमारे साथ रहे हैं।
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