श्रीनाथजी का सर्वाधिक पसंदीदा स्थान नाथद्वारा स्थित उनकी व्यक्तिगत गोशाला है, जो उनकी हवेली से 3 किमी की दूरी पर स्थित है। व्रज राज श्रीनाथजी जब नाथद्वारा पधारे, हर जगह गौशाला बनने लगीं।
पहाड़ियों से घिरा यह एक बेहद सुरम्य स्थल है। यहां पर काफी विशाल खुला मैदान है। इसे हवेली के साथ बहुत नियोजित तरीके से बनाया गया है। यहां पर लगभग 2000 गाय हैं और 50 ग्वालों का एक स्टॉफ इसकी देख-भाल करता है।
श्रीनाथजी की कोई भी यात्रा यहां पर आए बिना पूरी नहीं होती। यह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि मंदिर। श्रीजी यहां पर अपने प्रिय गोमाता के बीच रहना पसंद करते हैं। वर्तमान समय में श्रीजी की व्यक्तिगत गाय ललिता है, जिसकी मां रुक्मिणी थी। यह व्यक्तिगत गाय नंदवंश के मूल झुंड की वंशावली से प्रत्यक्ष रुप से संबद्ध है।
श्रीजी की अर्धभुजा सर्वप्रथम गिरिराज गोवर्धन से जब प्रकट हुई थी, उसी समय नंद वंश की गाय भी वहाँ आयी थी। उसी का वंश यहाँ नाथद्वारा में चल रहा है ।
जो गाय श्रीनाथजी को उनकी अर्धभुजा पर दुग्धपान कराने के लिए प्रकट हुयी थी, उसका नाम धूमर था। वह सद्दू पांडे और नरो (जो श्रीजी के साथ रोज खेला करती थी) के समुदाय से थी। धूमर गाय ने उसे श्रीकृष्ण के रुप में श्रीनाथजी को पहचान लिया था, और गिरिराज गोवर्धन के शीर्ष पर प्रतिदिन जाकर श्रीजी को दुग्धपान कराती थी ।
(किसी भी मनुष्य से अधिक प्रेम, सुगंधि एवं दिव्य स्पंदन गाय अपने प्रिय कृष्ण भगवान में महसूस कर सकती हैं)।
उस समय से नंद वंश की गाय का वंशज नाथद्वारा में चल रहा है। धूमर के वंशज उस समय आयी, जब श्रीजी यहां पर गोवर्धन से आए।
वर्तमान समय में ललिता को इच्छापूर्ति करने वाली कामधेनु गाय कहा जाता है।ऐसी आस्था है की उसके नीचे से आथड़ा पूर्ण करने के बाद कान में यदि इच्छा बताई जाए तो उसकी अवश्य पूर्ति होती है। धीमे से कहे गए शब्द सीधे श्रीजी के पास उनके समर्पित गुरुश्री की उपस्थिति में सीधे पहुंचते हैं। इसमें श्रद्धा का दिव्य भाव होता है!!
मैं यहां पर पहली बार फरवरी-2005 में गुरुश्री के साथ आयी और उनके दिशा-निर्देशन व देख-रेख में आथड़ा किया था। एक साध्य की उपस्थिति में किया जाने वाला आथड़ा अतीत की सभी नकारात्मकता को पूरी तरह से स्वच्छ कर देता है। हमारा मेरुदंड इस पवित्र गाय के सूर्य बिंदु से पूर्णता के साथ गुजरता है।
इसके साथ ही साथ गुरुश्री यहां पर अपनी मंत्र शक्ति एवं आशीर्वचनो पर बरकरार हैं। उन्होंने मुझे इस दिन अपने सभी पूर्व जन्मों से पूर्ण मुक्ति प्रदान कर दी एवं दिव्य ठाकुर जी के साथ विलीन होने का पूर्ण अवसर प्रदान किया। जब मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों, ‘‘यह तुम्हारा नसीब है, तुम इसकी हकदार हो.. इसलिए’’, यह उत्तर मिला।
उस समय से मेरा यह सौभाग्य रहा है कि गुरुश्री के साथ अनेक बार नाथद्वारा की यात्रा की है। प्रत्येक यात्रा में दिव्य श्रीनाथजी के दर्शन एवं अपनी स्वयं की वास्तविकता व पहचान मिलती रही है।
गुरुश्री यहां पर अधिकांश समय व्ययतीत करना चाहते थे। यहां पर घंटों व्ययतीत किया जा सकता था। गुरुश्री ने मुझे ठाकुर जी की अनेक दिव्य लीलाओं के विषय में बताते रहते है, जो श्रीनाथजी गौशला में खेल करते हैं।। मैं भी अनेक बार यहां पर उनकी दैवीय उपस्थित की साक्षी बनी।
अनेक बार मैंने यह महसूस किया कि श्रीजी अपने मंदिर से बाहर गोशाला में हमारे साथ समय व्ययतीत करना पसंद है । यह तब महसूस हुआ, जब उनकी श्रुति मधुर आवाज मुझे गोशाला की घटनाओं के विषय में बताते हैं, और यह भी पता चला कि वह अपनी गोशाला से कितना प्यार करते हैं।
यहां पर दैनिक रुप से मंदिर की तरफ़ से दो थुली होती हैं।
इस थुली को अत्यधिक प्राचीन तरीके से तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त कोई भी वैष्णव गाय को भोजन कराना चाहते हैं, तो वह इसे दुकान से अनाज खरीद कर सीधेदे सकते हैं। इस भोजन को सही तरीक़े से खिलाया जाता है, नहीं तो गायों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
मेरे गुरुश्री सुधीर भाई और महागुरुश्री- श्रीनाथजी दोनो ही गोमाता के संतुलित और नियंत्रित खाने के तरीक़े से अनन्दित होते हैं। बिना किसी संघर्ष अथवा वैमनस्य के वे निर्धारित स्थान पर खादी होती हैं, और अपने भोजन को पूरी तरह से बिना किसी संघर्ष के ग्रहणकरती हैं। अनाज का एक भी दाना बर्बाद नहीं होता।
हर बार ये दोनो मुझसे कहते हैं कि पूर्ण अनुशासन इन गो माताओं से सीखा जा सकता है, ‘‘मनुष्यों को समरसता के मूल्य व बहुमूल्य अनाज को नष्ट न करने के भाव को सीखना चाहिए।’’
कभी कभी, श्रीजी की आवाज प्रतिध्वनित होती है, ‘‘उन्हें यह सबक भी सीखना चाहिए कि वे मेरा दर्शन करते समय दूसरों को धक्का न दें और पंक्ति को समुचित रुप से संचालित करने में सहायता करें। इसके बाद सभी समुचित दर्शन प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करें।’’
एक अन्य बात जिसके विषय में गुरुश्री ने मुझे बताया, वह यह थी कि श्रीजी को किसी भी स्वरुप में जो कुछ भी चढ़ाया जाता है, वह दाता को सवाया (25 प्रतिशत अधिक) के साथ वापस करते हैं। अंततः श्रीजी वास्तव में कुछ भी अपने पास नहीं रखते हैं। श्रीजी ने स्वयं कहा है कि यह एक आश्चर्य है कि प्राप्त करने की अपेक्षा 25 प्रतिशत वापस करने के बावजूद भी उनका खजाना कभी भी खाली नहीं जाता। इस प्रकार यदि संपूर्णता से देखा जाए तो वह किसी भी वैष्णव से कुछ भी लेकर अपने पास नहीं रखते।
वह केवल गोशाला की भेंट को पूर्णता के साथ स्वीकार करते हैं और इसके एवज में वह दाता को कुछ भी वापस नहीं करते। गुरुश्री ने दाता से कहा कि श्रीजी अपनी गायों को चराने के अपने निर्धारित कर्म का पालन करते हैं। यदि कोई भी व्यक्ति उनके इस कर्म में सहायता करता है तो वह सबसे प्रसन्न और आनंदित होता है और वह प्रतिसाद स्वरुप केवल आशीर्वाद देते हैं। इतना ही नहीं हम इस चढ़ावे को आशीर्वाद की वापसी के तौर पर स्वीकार करते हैं। इसके साथ श्रीजी के लिए कुछ कार्य करने के भाव के विस्तार का लक्ष्य है, क्योंकि अंततः ठाकुरजी की भक्ति में श्रीजी के लिए कुछ कार्य करने का भाव सन्निहित है। इस प्रकार अंततः ठाकुरजी के प्रति भक्ति ही भाव व पदार्थ की एकमात्र पवित्रता है। इसके अतिरिक्त उनके निकट आने में कोई भी अन्यत्र शक्ति आप की सहायता करने हेतु उपलब्ध नहीं है।
(इसे पुस्तक जीरो 2 डॉट - चैप्टर-6 से लिया गया है)
यह घटना वर्ष 2003 सितंबर की है, जब सुधीर भाई अपनी पत्नी प्रज्ञा भाभी के साथ नाथद्वारा में दो दिन के लिए आए थे। यह जन्माष्टमी के तुरंत बाद का दिन था, जब वे मंगल दर्शन के बाद बम्बई वापस लौटना चाहते थे। श्रीजी बाबा की गोशाला मंदिर से 2 किमी की दूरी पर स्थित है। हवाई अड्डा जाते समय सुधीर भाई ने चिमनभाई से अचानक यह पूछा, जो ड्राइवर और मंदिर में एक सेवक हैं अथवा गोशाला को रोकना पड़ेगा। उन्हें इस बात का आश्चर्य हुआ कि उनके रुकने का कोई कार्यक्रम नहीं है और वे उड़ान के लिए विलंब कर रहे थे। यहां पर भी इन दोनो ने अद्भुत दृश्य का दर्शन किया।
सुधीर भाई जिस गाय के दर्शन के लिए गए थे वह नंद वंश की मुख्य गाय ‘रुक्मिणी’ थी, जिसका दूध सीधे ठाकुरजी की सेवा में जाता था। जब उन्होंने उसके बारे में पूछताछ की तो पता लगा कि वह बहुत बीमार है और उठने की स्थिति में भी नहीं है। (यह गाय सुधीर भाई की गोशाला में प्रवेश करते ही आ जाती थी, भले ही वह कहीं भी होती थी, वह उनकी सुगंध से वहां पर उनसे मिलने आ जाती थी। वह भी उसे बहुत पसंद करते थे और वह उसे प्यार से रुक्मा कहते थे और सदैव ही उसके साथ समय बिताते थे)
इसलिए वह उसके रहने के स्थान पर गए एवं उसे ऊर्जा से भरपूर दर्शन दिया, जिसका तुरंत प्रभाव पड़ा। गाय ने आंसू भरी आंखों से उन्हें देखा और दर्शन किया तथा अपने सिर को बड़े प्रेम और समर्पण के साथ उनके चरणों में रख दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो वह इस क्षण की प्रतीक्षा कर रही हो।
प्रगना भाभी एवं चिमन भाई इस बात से काफी अचम्भित हुए कि रुक्मिणी क्यों की बीमारी के विषय में किसी को भी कुछ नहीं मालूम है। यहां पर काफी समय देने के बाद वे हवाई अड्डे पर समय से पहुंच गए और सुरक्षित वापस चले गए। तीन दिन के बाद उन्हें रुक्मिणी की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ। वह उस स्थान से कभी नहीं उठी, जहां पर उसने ठाकुरजी की ऊर्जा के प्रति समर्पण में अपने सिर को रख दिया था।
यह घटना बहुत साधारण प्रतीत होती है, जब तक कि व्यक्ति गहन साधना की प्रक्रिया में नहीं जाता।
सुधीर भाई को कैसे पता चला कि वह बीमार थी, जबकि वहां पर रुकने का पहले कोई कार्यक्रम नहीं था और मंदिर व गोशाला की बीच की दूरी बहुत कम है।
इस थोड़ी सी दूरी के बीच उन्हें किसने सूचित किया कि रुकिए एवं गाय को दर्शन दीजिए?
बीमार गाय को कौन दर्शन देना चाहता था और उसने किसका दर्शन प्राप्त किया एवं किसके माध्यम से प्राप्त किया?
वह श्रीजी बाबा की व्यक्तिगत गाय थी और हम सभी जानते हैं कि श्रीजी अपनी गायों के प्रति कितने समर्पित थे, इसलिए सुधीर भाई से भी श्रीजी की निकटता अवश्य ही बहुत गहरी थी?
गाय ने दिव्य शक्ति को कैसे पहचाना, जबकि हम मनुष्य दिव्य शक्ति को समझने से चूक जाते हैं।
जो ऊर्जा वहां पर अचानक प्रकट हुयी थी वह किसकी ऊर्जा थी, जिसने इस स्वरुप में बीमार गाय को दर्शन दिया?
हमारे आस-पास निश्चित रुप से ईश्वर की रहस्यमय शक्ति सक्रिय रहती है, यदि हम उचित भाव एवं अनुभूति के साथ इसे समझने का प्रयास करें तो हम इसका अनुभव कर सकते हैं।
मेरे महागुरुश्री ठाकुरजी श्रीनाथजी की जय हो!
पूर्ण दूध सिर्फ़ मंदिर सेवा में उपयोग लिया जाता है, उसकी बिक्री नहीं होती। श्रीनाथजी की सभी गौशला में तरह तरह की गौ हैं। जिन में से जो ख़ास हैं उन सभी के नाम भी हैं, और अपने नाम पुकारे जाने पर दौड़ कर चली आती हैं।
हर गौ के स्वास्थ का पूर्ण ध्यान रखा जाता है।
ऐसा कई बार हुआ है, जब मध्य रात्रि को गौ के रम्भने की आवाज़ से ग्वाल जाग जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है की उस समय श्रीनाथजी गौशला में खेल करने पधारते हैं, उनकी गौमता से लाड़ लड़ाते हैं।
ऐसा सुनने में आता है की कुछ ख़ुश क़िस्मत ग्वाल को श्री क्रिशन के साक्षात दर्शन भी हुए हैं।
ये गोलोक स्वरूप गौ शाला पूर्ण रूप से मंदिर मंडल से संचारन होती है।
जय हो श्रीनाथजी प्रभु की
जय श्री गोपाल
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