श्रीनारदजी कहते है— राजन्। तरदनन्तर मेरे मुख से अपने यज्ञ का लोप तथा गोवर्धन पूजनोत्सव के सम्पन्न होने का समाचार सुनकर देवराज इन्द्र ने बड़ा क्रोध किया। उन्होंने उस सांवर्तक नामक मेघगण को, जिसका बंधन केवल प्रलयकाल में खोला जाता है, बुलाकर तत्काल व्रज का विनाश कर डालने के लिये भेजा। आज्ञा पाते ही विचित्र वर्णवाले मधगण रोषपूर्वक गर्जना करते हुए चले। उनमें कोई काले, कोई पीले और कोई हरे रंग के थे। किन्हीं की कान्ति इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ों की तरह लाल थी। कोई कपूर के समान सफेद थे और कोई नीलकमल के समान नीली प्रभा से युक्त थे। इस तरह नाना रंगों के मेघ मदोन्मत्त हो हाथी के समान मोटी वारिधाराओं की वर्षा करने लगे । कुछ अचल मेघ हाथी की सूँड़़ के समान मोटी धाराऍं गिराने लगे। पर्वत शिखर के समान करोडों प्रस्तरखण्ड वहॉं बड़े वेग से गिरने लगे।
साथ ही प्रचन्ड आधी चलने लगी, जो वृक्षों और घरो को उखाड़ फेकती थी। मैथिलेन्द्र् प्रलयंकर मेघों तथा वज्रपातों का महाभयंकर शब्द व्रजभूमि पर व्याप्त हो गया। उस भयंकर नाद से सातों लोकों और पातालों सहित ब्रम्हाण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और आकाश से भूतल पर तारे टूट- टूटकर गिरने लगे। अब तो प्रधान प्रधान गोप भयभीत हो, प्राण बचाने की इच्छा से अपने-अपने शिशुओं और कुटुम्ब को आगे करके नन्दमन्दिर में आये। बलराम सहित परमेश्वर श्रीनन्दनन्दनकी शरणमें जाकर समस्त भयभीत व्रजवासी उन्हें प्रणाम करके कहने लगे।।
गोप बोले— महाबाहु राम ! राम !! और व्रजेश्वर कृष्ण ! कृष्ण !! इन्द्र के दिये हुए इस महान कष्ट से आप अपनें जनों की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । तुम्हारे कहने से हम लोगों ने इन्द्र यज्ञ छोड़कर गोवर्धन पूजा का उत्सव मनाया, इससे आज इन्द्र का कोप बहुत बढ़ गया है।
अब शीघ्र बताओं, हमें क्या करना चाहिये?
गोपी और ग्वालों से युक्त क गोकुल को व्याकुल देख तथा बछड़ो-सहित गो-समुदाय को भी पीडित निहार, भगवान बिना किसी घबराहट के बोले ।।
श्रीभगवान ने कहा : आप लोग ड़रें नहीं। समस्त परिकरों के साथ गिरिराज के तटपर चलें। जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे।।
यों कहकर श्रीहरी स्वजनों के साथ गोवर्धन के पास गये और उस पर्वत को उखाड़ कर एक ही हाथ से खेल-खेल में ही धारण कर लिया। जैसे बालक बिना श्रम के ही गोबर छत्ता उठा लेता है, अथवा जैसे हाथी अपने सूँड़ से कमल को अनायास उखाड़ लेता है, उसी प्रकर कृपालु करूणामय प्रभु श्रीव्रजराजनंदन गोवर्धन पर्वत को धारण करके सुशोभित हुए ।।
फिर वे गोपों से बोले- ”मैय्या ! बाबा ! व्रजवलभेश्वरगण ! आप लोग सारी सामग्री, सम्पुर्ण धन तथा गौओं के साथ गिरिराज के गर्त में समा जाइये। यही एक ऐसा स्थान है, जहॉं इन्द्र का कोई भय नहीं हैं।।
श्रीहरी का यह वचन सुनकर गोधन, कुटुंब तथा अन्य समस्त उपकरणों के साथ वे गोवर्धन पर्वत के गड्ढे में समा गये। श्रीकृष्ण का अनुमोदन पाकर बलरामजी सहित समस्तध सखा ग्वाल- बालोंने पर्वत को रोकने के लिए अपनी-अपनी लाठियोंको भी लगा लिया।
पर्वत के नीचे जलप्रवाह कों आता देख भगवान ने मन ही मन सुदर्शन चक्र तथा शेष का स्मरण करके उसके निवारण के लिए आज्ञा प्रदान की।
मिथिलेश्वर उस पर्वत के ऊपर स्थित हो, कोटी सूर्योंके समान तेजस्वी सुदर्शनचक्र गिरती हुई जल कीं धाराओं को उसी प्रकार पीने लगा, जैसे अगस्त्य मुनि ने समुद्र को पी लिया था। उस पर्वत के नीचे शेषनाग ने चारों ओर से गोलाकार स्थित हो, उधर आते हुए जलप्रवाहको उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोके रहती है। गोवर्धनधारी श्रीहरी एक सप्ताह तक सुस्थिर भाव से खड़े रहे और समस्त् गोप चकोरों की भॉंति श्रीकृष्ण चन्द्र की ओर निहारते हुए बैठे रहे।
तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथी पर चढ़कर, अपनी सेना साथ ले, रोष से भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्ड़ल में आये। उन्होंने दूर से ही नन्दथव्रजको नष्टे कर डालने की इच्छा से अपना वज्र चलाने की चेष्ठा की। किंतु माधवने वज्रसहित उनकी भूजा को स्तम्भित कर दिया।।
फिर तो इन्द्रा भयभीत हो गये और जैसे सिंह की चोट खाकर हाथी भागे, उसी प्रकार वे सांवर्तक गणों तथा देवताओं के साथ सहसा भाग चले। उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छॅंट गये। हवा का वेग रुक गया और नदियों में बहुत थोड़ा पानी रह गया। पृथ्वी और आकाश निर्मल हो गये। चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी हो गये। तब भगवान की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वत के गर्त से अपना अपना गोधन लेकर धीरे धीरे बाहर निकले।।
उसके बाद गोवर्धन धारी ने अपने सखाओं से कहा- तुम लोग भी निकलो। तब वे बोले- नहीं हम लोग अपने बल से पर्वत को रोके हुए है, तुम्ही निकल जाओ। उन सबको इस तरह की बाते करते देख महामना गोवर्धनधारी श्रीहरि ने पर्वत का आधा भार उन पर ड़ाल दिया। बेचारे निर्बल गोप बालक उस भार से दबकर गिर पड़े। तब उन सबको उठाकर श्रीकृष्ण ने उनके देखते देखते पर्वत को पहले की ही भांति लीला पूर्वक रख दिया। उस समय प्रमुख गोपियों और प्रधान प्रधान गोपों ने नन्द नन्दन का गंध और अक्षत आदि से पूजन करके उन्हे् दही दूध का भोग अर्पित किया और उनको परमात्मा जानकर सबने उनके चरणों में प्रणाम किया।
नन्द, यशोदा, रोहिणी, बलराम तथा सनन्दन आदि वृद्ध गोपों ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से लगाकर धन का दान किया और दया से द्रवित हो, उन्हें शुभाशिर्वाद प्रदान किया। तदनन्तर उनकी भूरि भूरि प्रशंसा करके, समस्त व्रजवासी सफल मनोरथ हो नन्द्नन्दन के समीप गाने बजाने और नाचने लगे तथा उन श्रीहरि को आगे करके अपने घर को लौटे। उसी समय हर्ष से भरे हुए देवता वहॉं नन्दन वनके सुन्दर सुन्दर फूलों की वर्षा करने लगे तथा आकाश में खड़े हुए प्रधान प्रधान गन्धर्व और सिद्धों के समुदाय गोवर्धनधारी के यश गाने लगे।।
जय श्रीनाथजी प्रभु
जय श्री राधा कृष्ण
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