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श्रीकृष्णन के द्वारा गोवर्धन पूजन का प्रस्ता्व और उसकी विधि का वर्णन

  • Writer: Priyanka Sachdev
    Priyanka Sachdev
  • Aug 25, 2020
  • 4 min read

Updated: Nov 8, 2020

जैसे खेती करने वाले किसान राजा को वार्षिक कर देते है, उसी प्रकार समस्त गोप प्रतिवर्ष शरदऋतु में देवराज इन्द्र के लिये बलि (पुजा और भोग) अर्पित करते थे । एक समय श्रीहरिने महेन्द्र याग के लिये सामग्री का संचय होता देख गोपसभा में नन्दजीसे प्रश्न किया । उनके उस प्रश्न को अन्यान्य गोप भी सुन रहे थे ।

श्रीभगवान बोले – यह जो इन्द्र की पूजा की जाती है, इसका क्या फल है? विद्वान लोग इसका कोई लौकिक फल बताते हैं या पारलौकिक।

श्रीनन्द‍ ने कहा – श्याम सुन्दर ! देवराज इन्द्र का यह पुजन भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला परम उत्तम साधन है। भुतलपर इसके बिना मनुष्य कहीं और सुखी नहीं हो सकता।


श्रीभगवान बोले–

पिताजी ! इन्द्र आदि देवता अपने पूर्वकृत पुण्य कर्मों के प्रभाव से ही सब ओर स्वर्ग का सुख भोगते है। भोगद्वारा शुभ कर्म का क्षय हो जाने पर उन्हे मर्त्युलोक मे आना पड़ता है। अत: उनकी सेवाको आप मोक्षका साधन मत मानिये।

जिससे परमेष्ठी ब्रम्हा को भी भय गये प्राणियो कि तो बात ही क्या है, उस काल को ही विद्वान् सबसे उत्कृष्ट, अनन्त तथा सब प्रकार से बलिष्ठ मानते है। इसलिये उस काल का ही आश्रय लेकर मनुष्य को सत्कृर्मों द्वारा सुरेश्वर यज्ञपति परमात्मा श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अपने सम्पुर्ण सत्कर्मों के फल का मन से परित्याग करके जो श्रीहरि का भजन करता है, वही परम मोक्ष को प्राप्त होता है, दुसरे किसी प्रकार से उसको मोक्ष नही मिलता। गौ, ब्राम्हण, साधु, अग्नि देवता, वेद तथा धर्म – ये भगवान यज्ञेश्र्वर की विभुतियॉं है। इनको आधार बनाकर जो श्रीहरि का भजन करते है, वे सदा इस लोक और परलोक मे सुख पाते है।


भगवान – के वक्ष:स्थल से प्रकट हुआ वह पुलस्त्य के प्रभाव से इस व्रजमण्ड़ल में आया है। उसके दशर्न से मनुष्य का इस जगत् मे पुनजर्न्म नही होता । गौओं, ब्राम्हणो तथा देवताओं का पूजन करके आज ही यह उत्तम भेट- सामग्री महान् गिरिराज को अर्पित की जाय। यह यज्ञ नहीं, यज्ञोका राजा है। यही मुझे प्रिय है। यदि आप यह काम नहीं करना चाहते तो जाइये, जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये।


उन गोपो में सनन्द नामक एक बड़े – बूढे गोप थे, जो बड़े नीतिवेत्ता थे। उन्होने अत्यंत प्रसन्न होकर नन्दजीके सुनते हुए श्रीकृरूण से कहा

सनन्द बोले – नन्दनन्दन ! तात ! तुम तो साक्षात ज्ञानकी निधि हो ।गिरराज की पूजा किस विधिसे करनी होगी, यह ठीक - ठीक बताओ ।


श्रीभगवान ने कहा - जहॉ गिरिराज की पूजा करनी हो वहॉ नीचे की धरती को गोबर से लीप पोतकर वहीं सब सामग्री रखनी चाहिये। इन्द्रियों को वश में रखकर बड़े भक्ति भाव से ‘सहस्त्र्शीर्षा’ मन्त्री पढते हुए, ब्राम्हणों के साथ रहकर गंगाजल या यमुनाजल से गिरिराज को स्नान कराना चाहिये।


फिर श्र्वेत गो दुग्धो की धारा से तथा पंचामृत से स्नान कराकर, पुन: यमुना जल से नहलाये। उसके बाद गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आसन, भॉति- भॉति नैवेद्य, माला, आभूषण समूह तथा उत्तम दीपमाला समर्पित करके गिरि‍राज की परिक्रमा करे। इसके बाद साष्टाङ प्रणाम करके, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहे- ‘जो श्रीवृन्दा्वनके अक्डकऋमें’ अवस्थित तथा गोलोक के मुकुट है, पूर्णब्रम्हा परमात्मा के छत्ररूप अन गिरिराज गोवर्धन को हमारा बारंबार नमस्कार हैं।’ तदनन्तर पुष्पांजलि अर्पित करे। उसके बाद घंटा, झॉझ और मृदङ आदि मधुर ध्वकनि करनेवाले बाजे बजाते हुए गिरिराजकी आरती करे। तदनन्तर ‘वेहामेतं पुरूषं महान्तिम्’ इत्याादी मन्त्र पढ़ते हुए उनके ऊपर लावाकी वर्षा करे और श्रध्दा–पूर्वक गिरिराज के समीप अन्नंकूट स्थापित करे।


फिर चौसठ कटोरों को पॉच पंक्तियों में रखें और उनमें तुलसीदल- मिश्रित गंगा- यमुना का जल भर दे।


फिर एकाग्रचित हो गिरिराजकी सेवा मे छपन्न भोग अर्पित करे। तत्पश्र्चात् अग्रिमें होम करके ब्राम्हणों की पूजा करे तथा गौऔं और देवताओं पर भी गन्ध – पुष्प चढ़ाये । अन्त मे श्रेष्ठ ब्राह्यणों की पूजा करे तथा गौओं और देवताओं पर भी गन्ध - पुष्प चढ़ाये।


अन्त में श्रेष्ठ ब्राह्यणों को सुगन्धित मिष्टान्न भोजन कराकर, अन्य लोगों को - यहाॅ तक कि चण्डाल भी छूटने न पायें - उत्तम भोजन दे। इसके बाद गोपियों और गोपों के समुदाय गौओं के सामने न पायें - उत्तम भोजन दे। इसके बाद गोपियों और गोपों के समुदाय गौओं के सामने नृत्य करे, मङज गीत गाये और जय - जयकार करते हुए गोवर्धन पूजनोत्सव सम्पन्न करें।।


जहाॅ गोवर्धन नहीं है, वहाॅं गोवर्धन - पूजाकी क्या विधि है, यह सुनो।


गोबर से गोवर्धन का बहुत ऊँचा आकार बनाये। फिर उन्हें पुष्प समूहों, लता - जालों और सींको से सुशोभित करके, उसे ही गोवर्धन-गिरि मानकर सदर भूतल पर मनुष्यों को उसकी पूजा करनी चाहिये। यदि कोई गोवर्धनकी शिला ले जाकर पूजन करना चाहे तो जितना बड़ा प्रस्तर ले जाये, उतना ही सुवर्ण उस पर्वत पर छोड़ दे। जो बिना सुवर्ण दिये वहाँ की शिला ले जायगा, वह महारौरव नरक में पड़ेगा शालीग्राम भगवान की सदा सेवा करनी चाहिये । शालिग्राम के पूजकको पातक उसी तरह स्पर्श नही करते, जैसे पद्यपत्र पर जल का लेप नहीं होता। जो श्रेष्ठ जि गिरिराज - शिलाकी सेवा करता है, वह सातों द्वीपोंसे युक्त भूमण्डल के तीर्थी में स्नान करने का फल पाता है। जो प्रतिवर्ष गिरिराजकी महापूजा करता है, वह इस लोक मे सम्पूर्ण सुख भोगकर परमलोक में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।।

जय श्रीनाथजी भगवान

जय श्री गोवर्धन नाथ



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